patthar

"पत्थर" – सी. आचार्य

ये ही है वो पत्थर, जहाँ बैठ मैंने पानी, मछली और पवन का हे मज़ा लिया।

यहीं से है मेरे दोस्त को तैरते देख, मगरमच्छ चिढ़ाया।

अब होगी वो कहाँ? यह भी खुद को यहीं से समझाया।

खिल सकते हैं पत्थर में भी घास, फूल और पत्ते,
बस कोई मिट्टी समझ के तो देखे।

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